उसे जिन्दगी से कुछ और भी चाहिए था ,
वो देर तक शाख पर फड-फड़ाता रहा ,
छटपटाता रहा ,
वो जो वृक्ष उसे थपेड़ों से बचा रहा था ,
कभी इधर - कभी उधर हिला रहा था ,
दुनिया की धूर्त हवाओं ने ,
अब उसे जोर से झटका ,
अब वो आज़ाद था ,
बह रहा था उन्मुक्त ,
उठाये थी हवाएं उसे जमीन से ,
ऊँचे .ऊँचे और ऊँचे , वो उड़ रहा था ,
खुले आसमान में , बिना बंधन के ,
और अचानक ही हवाओं ने अपना रंग ही बदला
वो शांत हो गयी एकाएक , ठन्डे जल की तरह ,
वो गिरने लगा था , और सोचता रहा था सवाल क्या
मेरा क्या कसूर था ?
"कि मैं उड़ना चाहता था |"
मेरा क्या कसूर था ?
"कि मैं अलग पहचान चाहता था |"
मेरा क्या कसूर था ?
"कि यकीं हवाओं पर मैंने किया |
मजबूर हूँ , जो जुदा अपनी ही शाख से , मर्जी से हुआ |
अब फिर जुड़ नही सकता ,
अब फिर बंध नही सकता | "
BY: Anjali Maahil