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Mar 30, 2011

युवा बदलाव की आंधी

 उसे जिन्दगी से  कुछ और भी चाहिए था ,
वो देर तक शाख पर फड-फड़ाता रहा ,
 छटपटाता  रहा ,
वो जो  वृक्ष उसे थपेड़ों से बचा रहा था ,
कभी इधर - कभी उधर  हिला रहा था ,
दुनिया की धूर्त हवाओं ने ,
अब उसे जोर से झटका ,

अब वो आज़ाद था ,
बह रहा था उन्मुक्त  ,
उठाये थी हवाएं उसे जमीन से ,
ऊँचे .ऊँचे  और  ऊँचे , वो उड़ रहा था ,
खुले आसमान में , बिना बंधन के ,
और अचानक ही हवाओं ने अपना रंग ही बदला 
वो शांत हो गयी एकाएक , ठन्डे जल की तरह ,
वो गिरने लगा था , और सोचता रहा था  सवाल क्या 
मेरा क्या कसूर था ? 
"कि मैं उड़ना चाहता था |"
मेरा क्या कसूर था ?
"कि मैं अलग  पहचान चाहता था |"
मेरा  क्या  कसूर था ?
"कि यकीं हवाओं पर मैंने किया |
मजबूर हूँ , जो जुदा अपनी ही शाख से , मर्जी से हुआ |
अब फिर जुड़ नही सकता ,
अब फिर बंध नही सकता | "


BY: Anjali Maahil

Mar 27, 2011

एक अधूरा मैं...|

तेरे मिलकर चले जाने के बाद
बहुत खालीपन महसूस होता है मुझे
शायद हद से ज्यादा ही छुट गया है पास तेरे
और मेरे पास रख गये
अधूरे हालात , अधूरे अहसास , अधूरे सपने ,
और
एक अधूरा मैं |

अब कुछ सोच नही पाता ,
तुझसे ज्यादा कुछ याद नही ,
अब कुछ लिख नही पाता ,
तेरे नाम से ज्यादा कुछ याद नही

जानता हूँ तो बस इतना ,
कि बदला है "बहुत"-"कुछ" ,
पर सही -सही कितना ,
"बहुत -कुछ" से ज्यादा याद नही |

तेरे मिलकर चले जाने के बाद ,
बहुत खालीपन महसूस होता है मुझे |


अब  कुछ  कह  नही पाता ,
तुझसे जुदा पास मेरे कोई बात नही ,
तनहा - तनहा से दिन मेरे हुए ,
और रात फिर बिन तेरे उदास रही ,

होंठ फिर एक बार हिले और बात न हुई ,
चलते चलते ठहरा रहा ...मैं ,फिर 

तेरे मिलकर चले जाने के बाद ,
बहुत खालीपन महसूस होता है मुझे |


अब जो गुजरता है वक़्त पिछला ,
अक्सर निगाहों में ,
आता है याद , हसीं में तेरा ,
नज़र को झुका लेना ,
टकराकर निगाहों को निगाहों से फिर लेना ,

तेरे मिलकर चले जाने के बाद ,
बहुत खालीपन महसूस होता है मुझे |

BY: Anjali Maahil


Mar 21, 2011

गिला कागज



देखो तुम उस कागज को ,जिस पर ,
पार अड्चानो को करते करते मैंने ,
जाने कितने शब्द -कोष फैलाये थे ,
पर धूप में रखकर देखूं तो ,
"क्यूँ ये कागज भीगा-भीगा सा लगता है?"




जब दुःख दर्द की बरसातों से ,
 नींव में पानी भर आया,
अंजुली भर मिटटी खुशियों की ,
नींव को तभी सुखाया था ,
एक प्रश्न फिर भी -
अनसुलझा है ,
"क्यूँ ये कागज भीगा-भीगा सा लगता है?"




कठिन परिश्रम करते -करते , 
माथे पर बल बन आये ,
धूप पड़ी और हालातों की , 
आशा की छाँव इसे बिठाया था ,
एक प्रश्न फिर भी अनसुलझा है 
"क्यूँ ये कागज भीगा-भीगा सा लगता है?"


BY: Anjali Maahil


Mar 19, 2011

Dear Diary


 कुछ ऐसी पंक्तियाँ जो कुछ अल्फाजो के साथ बहुत गहरी बातें कर जाती हैं अक्सर , मुझसे उम्मीद है आपको पसंद आएँगी | :-

1)   कभी ना असफल लिखा ,
      ना कामयाब लिखा ,
      पन्ना जो हूँ मैं ,एक किताब का ,
      उस पन्ने का एक भाग लिखा |

2)  उस रात में तुम जो आते  ,
     चाँद के परदे से तुम्हे ढक देती ,
     तुम यूँ सरे-शाम बदनाम ना होते |


3)  तेरा नाम भी कितना आजीब है ,
     शुरू हंसी में  करती हूँ ,
     आखिर में साँस उखड ही जाती है |


4)  बाज़ार में बेठे हैं बेचने को दिल ,
     मगर बेकार जो है ये ,
     तो खरीदार नही मिलता 


5)  बड़ी फरेब दुनिया है ,
     हंसकर जो मिलती हूँ  ,
     तो दगाबाज़ कहते हैं|


6)  लेके तस्वीर को उनकी , महफ़िल में ढूंढ़ते हैं ,
     मगर मिलता नही कोई   "पहचान का चेहरा |



BY: Anjali Maahil


Mar 12, 2011

जिन्दा हूँ मैं |


"सुनो, मेरी आवाज़ , मैं भी हूँ ......और जिन्दा हूँ | "



बंद कमरा .और छटपटाता धुप अँधेरा 
दीवारों से टकराता हुआ 
बेबस है बहुत ,चीखता भी है 
"सुनो, मेरी आवाज़ , मैं भी हूँ ,
और जिन्दा हूँ |
तुम भी अजीब हो !
तुम जो मुझसे डरते हो ,
और डरा जो मैं पहले से हूँ |

डरा हूँ इन्सान की टूटी हुई उमीदों से ,
डरा हूँ इन्सान की अन्दर की ख़ामोशी से ,
डरा हूँ उसकी खुल कर फिर बंद होती पलकों से ,
जो अक्सर मुझे से कहती हैं -

"अँधेरे में डर लगता है | "
वो जानते ही नही .. या मानते ही नही 
मैं जीवन का अहम् हिस्सा भी हूँ ,
हर कहानी में किस्सा  भी हूँ , 
वो मैं ही था जिसने महसूस किया ,
पहली बार आशा की  रौशनी को ,
किसी की ख़ामोशी को ,
फिर कोई बेचैन है ये सोच कर ,
मैं जाने क्यूँ और भी  गहरा हो गया ?

"सुनो, मेरी आवाज़ , मैं भी हूँ |
और जिन्दा हूँ | "

 -Anjali Maahil


Mar 1, 2011

वो कच्ची सड़क


वो कच्ची सड़क आज भी याद आती है ,
जहाँ गिर भी जाऊं  तो चोट नही लगती |
जहाँ भी पैर रखती थी वहां ये मिल ही जाती थी ,
पाना मुश्किल नही था ,
पर जाने क्यूँ अब नामुनकिन हो गया |

ये मेरी बचपन की कच्ची सी सड़क ,
 बारिश मे टिक नही पाती थी ,
एक नए सिरे से शुरुआत करती थी मैं ,
रोज़ रोज़ इसी पर जब चलती थी मैं |

वो  मेरे  बचपन  की  भांति कोमल थी ,
वो एक ही  आकार में कैद न रहती, चंचल सी थी ,
कभी बाएं तो  कभी दायें ,अटखेलियाँ करती ,
शहरों की अक्सर बातें करती थी मैं, 
रोज़ रोज़ उसी  पर जब चलती थी मैं |









BY: Anjali Maahil
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