दूर क्षितिज को निहारते हुए
एकाएक एक शब्द उभरा
था तो बड़ा कठिन शब्द
पर सबसे सरल उपाय /जवाब
था ज़िन्दगी का
" समझौता "
हल , अनसुलझे असंख्य प्रश्नों का
और सबसे खामोश उपाय
उलझे रिश्तों के तारों का
मैं भी समझौते की ज़िन्दगी
में एक कड़ी ,
बंधी हुई , जुडी हुई
मगर आज तक जो समझी नही
समझौता होता क्या हैं ?
समझौता होता क्यूँ हैं ?
मनुष्य ,
डटकर हैं लड़ता
आदि से मध्य तक
फिर थकता हैं
अंत हैं ही में क्यों कभी ?
हिम्मत होती नही खुद में ,
दोष औरो को देकर
फिर रोता है क्यों कभी ?
मनुष्य ज़िन्दगी में
समझौता करता हैं , क्यों कभी ?
टूटता जब कभी , तब थामता कुछ क्यों नहीं
रखता हैं हाथ सामने ,फिर मांगता कुछ क्यों नहीं
जब वो हैं उदास ,तो फरेब का हँसता क्यों हैं?
मनुष्य ज़िन्दगी में
समझौता करता हैं क्यों कभी ?
चित्रकार को सब रंग ,फीके लगने लगे
लगने लगे सब को , अपने ही घोसले पराये क्यों
कुछ भी होता नही किसी का , ज़माने मैं
तो " सब हैं मेरा " ऐसा कहता क्यों हैं , रोता क्यों हैं ?
मनुष्य ज़िन्दगी में
समझौता करता हैं क्यों कभी ?
रखता हैं हकीकत , अपनी सामने
पर बताता कुछ क्यों नही , छुपता हैं ये सोचकर
ज़माने से ,क्या होगा
जानकर रहस्य मेरा , अनूठा हैं अजीब हैं
मनुष्य ज़िन्दगी में
समझौता करता हैं क्यों कभी ?
इसपर उसका जवाब आया ---
" नही करता हूँ मैं
समझौता कभी
जीता हूँ ज़िन्दगी ,भरपूर ख़ुशी में
शिकन नही होती ,चेहरे पर और
मेरे रंग सारे हैं वही
ज़िन्दगी किताब बनी मेरी
मैं कुछ भी नही " ,
माना ज़िन्दगी समझौता बनी
एक से दुसरे , दुसरे से तीसरे ,
समझौतों से गुथी ,
मेरे जवाब सारे वही पर रह गये ,
सवाल सारे वहीँ रह गये !
मनुष्य ज़िन्दगी में
समझौता करता हैं क्यों कभी ?